21 बार निष्फल होने पर भी बना सरकारी अधिकार - गिरधर सिंह रांदा
मुझे आज भी स्मरण है कि घर कि परिस्थितिया एसी थी कि कभी खाने को मिलता था, तो कभी नहीं मिलता था. फिर भी मैंने हार नहीं मानी और डटा रहा. कभी कभी लोगों कि डाॅट खानी पड़ती, तो कभी निराश करने वाली बातें सुननी पड़ती फिर भी मैंने हार नहीं मानी और अपने सपनों को साकार किया.
गिरधर सिंह रांदा |
मेरा नाम गिरधर सिंह रांदा
मेरी कहानी शुरू होती है हिन्दुस्तान और पाकिस्तान कि बोर्डर के नज़दीक राजस्थान का छोटा सा गांव उडंखा में घर के नाम पर हमारी छोटी सी झोपडी हुआ करती थी.
मुझे आज भी एक कवि कि कविता याद आती है,
" छिप- छिप कर अश्रु बहाने वालों,
मोती को व्यर्थ लुटाने वालों,
कुछ सपनों के खत्म होजाने से,
जिंदगी मरा नहीं करतीं,
कुछ सावन कुछ पानी बेहजाने से,
सावन मरा नहीं करता,
कुछ दीपक बुझ जाने से,
घर का आंगन मरा नहीं करता,
कुछ सपनों के खत्म होजाने से,
जिंदगी मरा नहीं करतीं.... "
मेरा भाई दोनों पैरों से अपंग था, मेरे पिताजी को शराब पीने कि बुरी आदत थी. घर कि परिस्थितिया बहुत खराब थी. कभी खाने को मिलता था, तो कभी नहीं मिलता था. हमारे पास पढ़ाई के पैसे नहीं हुआ करते थे. बचपन से ही सरकारी अधिकारी बनने का सपना था. अपनी आवश्यक चीजें खुद ही बटोरनी होती थी. मैं अपने आस-पास के पड़ोसी के बच्चे कि पुरानी ड्रेस और अंबुजा सीमेंट के कटे
से बनाईं हुई थैली में किताबें रखकर, कड़ी धूप में, गर्म गर्म रेत और 50 डिग्री तापमान में नंगे पैर चलकर पाठशाला जाया करता था. कभी-कभी पैरों में छाले पड जाते थे. नौवीं और दसवीं कक्षा में पाठशाला से लौट कर कभी ice-cream बेचता था, तो कभी सब्जी का ठेला लगाया करता था. उसी समय मेरे परिवार में पहले मेरी दादी बादमें मेरे चाचा और फिर दुसरे चाचा ने आत्महत्या कर ली.
आप लोग जानते होंगे कि एक ही परिवार में लगातार तीन व्यक्तियों कि मृत्यु होने से उस परिवार परिस्थिति कैसी होती है.
मैं लगातार दसवीं, बारहवीं और graduate कई परीक्षाओं में निष्फल हो रहा था. जब गर्मी कि छुट्टियां होती थी तब सारे बच्चे अपने दादा-दादी और नाना-नानी के घर जाते थे और मैं शहर में जाकर किसी कपड़े के उधोग में, तो कभी ढाबे पर काम करता था. जब मैं graduation कर रहा था तब अपना पेट पालने के लिए दस-दस लोगों का खाना पकाया करता था. उसी समय मेरे अपंग भाई ने भी आत्महत्या कर ली. मैं उस समय बहुत निराश रहा करता था. हमारे परिवार में चार-चार लोगों ने आत्महत्या कर ली थी. कभी मुझे भी विचार आते कि एसी जिंदगी जीने से अच्छा मैं भी आत्महत्या कर लु, परंतु उसी मैंने अपने घर के खाली बर्तन, टुटी हुई दीवारें, माता-पिता के मस्तिष्क पर से चिंता कि रेखा और फटे हुए कपड़े देखकर मैंने कमरकसली
कि मैं सरकारी अधिकारी बनूंगा और खाली बर्तन को अन्न से भर दूंगा, टुटी हुई दीवार को पक्की करूंगा, माता-पिता के मस्तिष्क पर से चिंता कि रेखा दूर करूंगा.
मैंने bank और ssc कि लगातार इक्कीस ( 21) परीक्षाएं दी परंतु सभी परीक्षाओं में मैं निष्फल रहा. कभी कभी कुछ मार्क से तो कभी शारीरिक परीक्षा में पीछे रह जाता था. अब मैं निराश और पागल सा रहने लगा था. पिताजी ने कहा कि," बेटा ये सब छोड़कर नोकरी करने लग जा".
परंतु मैंने हार नहीं मानी मैंने सोचा कि," जब रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाला नरेंद्र मोदी देश का प्रधानमंत्री बन सकता है, छपरे के घर में रहने वाले रामनाथ कोविंद देश के राष्ट्रपति बन सकते हैं, अखबार उठाने वाले अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति बन सकते हैं, तो मैं क्यु नहीं मैं भी सरकारी अधिकारी बन सकता हूं."
ईस बार सरकार ने ग्राम विकास अधिकारी कि भर्ती के लिए परीक्षा का आयोजन किया. मैं फिर से किताबें लेकर बैठ गया और पिछली गलतियां सुधार कर एक और बार परीक्षा देदी. और फिर से मैं काम में लग चुका था. जब एक महीने बाद परीक्षा का परिणाम आया तो मैं ग्राम विकास अधिकारी का सरकारी अफसर बन चुका था. हर बार हार ने मुझे हराया परंतु इस बार गिरधर ने हार को हराया.
यह बात उस लड़के के लिए बड़ी थी जीसने अपने परिवार में चार-चार आत्महत्या देखीं थीं. यह बात उस लड़के के लिए बड़ी थी जो कभी नंगे पैर पाठशाला जाया करता था.
यह बात उस लड़के के लिए बड़ी थी जिसने अपने सपनों को साकार होते हुए देखा.
मैं एक कवि कि पंक्ति सुनाना चाहता हूं कि,
" हे मंजिल के मुसाफिर एक दिन तुझे मंजिल भी मिलेगी,
प्यासे के चलकर समुद्र स्वयं आएगा,
थक के न बैठ मंजिल के मुसाफिर,
एक दिन मंजिल भी मिलेगी,
और मंजिल मिलने का आनंद भी मिलेगा. "
🤗 पढ़ने के लिए आपका बहुत आभार 🤗
No comments:
Post a Comment